दौड़ ना लगाएंअब

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ये कुछ डेढ़ दो साल पहले की ही तो बात है 

तब जैसे कि सब भागता था 

नहीं खाली कोई भी रास्ता था 

सड़कें , स्टेशन , दुकाओं में भीड़ 

सिनेमाघरों, मॉल , होटलों में भीड़

शादियों, त्योहारों, पार्टियों में भीड़  

बेतहाशा भागता आदमी 

खोजता वजह जीने की 

नौकरियों में, मनोरंजन में , सफलताओं में 

कभी बार बार मिलती विफलताओं में 

फिर भी और कुछ और कुछ और पाने की हूक़  

सबसे आगे और आगे पहुंच जाने की भूख 

मुझे लगता था कि  मैं ही सिर्फ रुकी सी हूँ

इन आसमानों से ऊंची दौड़ में क्यों झुकी सी हूँ?

क्यों नहीं भागना चाहती हूँ मैं भी औरों की तरह ?

क्यों थमी सी रहती हूँ मैं ?

क्यों नहीं दौड़ती  हूँ  पूरे ज़ोर से ?

क्यों जमी रहती हूँ मैं?

पर जब से ये कोरोना आया है 

सब पलट गया सा है 

ये भाग  दौड़ का चक्कर जैसे उलट गया सा है 

बाहर देखती हूँ बंद घर से जब अपने 

तो पार्क में ना भीड़ ना सड़कों पे दौड़ती कोई कार 

पर हैं मेरे दिल दिमाग में विचारों की मारामार  

अब भागती भीड़ दिल दिमाग में शोर करती है 

मुझसे  सवाल कई पुरजोर करती है 

दौड़ता आदमी  रुका सा क्यों नहीं भाता ?

ये दौड़ने का सिलसिला फिर चल क्यों नहीं जाता?

खाली पड़े झूले भी जैसे पुकार करते हैं 

चमकती सड़कें भी जैसे गुहार करती हैं 

चिड़ियों का फुदकना भी जैसे पूछता है मुझसे 

ये लगातार सन्नाटा भी जैसे जूझता है मुझसे 

और मैं अकेली जूझती हूँ विचारों के शोर से 

मिल जाए उत्तर मुझे किसी भी ओर से 

अब सोचने लगी हूँ मैं कुछ ऐसा सा 

जो ज़िन्दगी को पसंद हो उस जैसा सा 

बस थोड़ी थोड़ी सी चलती सी रहे सबकी 

आज कल की तरह ना  रुकी रहे  सबकी 

कोरोना बस यूँ ही थक के छोड़ जाए सबको 

थोड़ा सा समझा भी  जाए ‘संतुलन’ हमको 

हम चलें तो सब, पर दौड़ ना लगाएं अब 

ख़ुशी को पाने की यूँ होड़ ना लगाएं अब  

क्यूंकि भागना दौड़ना कभी भी रुक सकता है 

प्रकृति के आगे मनुष्य कभी भी झुक सकता है 


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