बसंत आया है
कुछ शर्माती सी कुछ मुस्कुराती सी
मिली जब मुझसे धरती कुछ गुनगुनाती सी
मैंने पूछा की क्या कुछ नया सा है ?
तुम्हारी रंगत को क्या हो गया सा है?
फिर हंसी फिर शर्मायी फिर गुनगुनायी धरती
मेरी तरफ देख कर फिर मुस्कुरायी धरती
बोली मालूम नहीं तुमको बसंत फिर से आया है
फिर से उसका नशा मेरे दिल दिमाग पे छाया है
जब भी आता है कितनी गर्माहट लाता है ये बसंत
रंगों में छिपा के कितने ख्वाबों की आहट लाता है ये बसंत
सूरज भी खुल के देखता है मुझको बसंत के साथ
और मैं सारी किरणें समेट लेती हूँ बढ़ा के अपना हाथ
किरणों से नहा कर सुनहरी हरी हो जाती हूँ मैं
सृष्टि के रचनाकार की एक सुन्दर परी हो जाती हूँ मैं
बड़े इंतज़ार के बाद ही ये बसंत आता है
ठन्डे पड़े जीवन में बहार अनंत लाता है
क्यों ना शरमाऊं , क्यों ना गुनगुनाऊँ बोलो तुम ?
कुछ अपने दिल को भी मेरे संग टटोलो तुम
तुमको किसी बसंत का इंतज़ार है कि नहीं?
तुमको भी बेवजह किसी से प्यार है कि नहीं?
जब पूछा मैंने धरती से कि क्या कुछ नया सा है
तो उसका उत्तर मुझे ही निरुत्तर कर गया सा है