क्यूँ बच्चों सी बातें करनी?

‘क्या बच्चों की सी बातें  करती हो’

 अपने बारे में ये सुन कर तंग आ चुकी हूँ मैं

दुनिया भर की नसीहतें भरपूर पा चुकी हूँ मैं

‘अब अधेड़ उम्र में भी कोई ऐसी बातें करता है ?’

कोई पुरानी टूटी चीजों में रंग भरता है?’

‘बच्चों की सी ज़िद की आदत नहीं गयी अब तक’

‘उत्सुकता तुम्हारी जिंदा रहेगी बोलो कब तक?’

‘बूढ़ी हो गयी हो पर बच्चों  सी झगड़ती हो’

‘मुझे उस टीले पर चढ़ना है कहके लड़ती हो’

‘ खाने को भी आइस क्रीम, चॉकलेट चाहिए जब तब

‘रख पाओगी ठीक ऐसे सेहत कब तक?’

‘बचकानी हरकतें ना  किया करो अब बुढ़ापे में’

‘अपनी बच्चों सी उड़ानों को रखो आपे में’

और मैं बस सुनती रहती हूँ सारे सुझावों को

समझने की कोशिश करती हूँ सभी भावों को

फिर  स्वयं के दिल को भी टटोलती हूँ मैं

अपने नए, पुराने अनुभवों को बटोरती हूँ मैं

क्यूँ बूढ़ी  हो गई और कब हुआ ऐसा?

एक बच्ची में ये बुढ़ापा घुसा कैसा?

दिल  तो अब भी चीजों में मनचाहे रंग भरता है

बिन रुके रात दिन नाचने का दिल करता है

कुछ ना  मिलने पर आँखें अब भी भर  ही आती हैं

कितना दबाओ भावनाएँ उभर ही जाती  हैं

फट लड़ाई , फट दोस्ती कर लेने का मन भी करता है

पर बड़ों के ‘अहंकार’ से अब भी मुझको डर  लगता है

कब पड़ेगी डाँट फिर मुझे  ‘बच्ची  बनने पर ?’

कब पड़ेगी घुड़की फिर मुझे ‘सच्ची बनने पर?’

कब मेरे सवालों  पर लोग हँसेंगे फिर ?

कब मेरी भावुकता पर ताने कसेंगे फिर?

इतना कुछ सोचने में है और करने में है

‘सामाजिकता’  ‘बड़ा बूढ़ा’ बने रहने में है

बच्चों की बातों को बच्चों का रहने दो

कायदों के साथ चलो ‘सच्चों ‘ का रहने दो।

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