स्वार्थ का प्रश्न
स्वार्थ मिला , सकपकाया सा घूम रहा था
इधर उधर मुंह छिपाता , नज़रें मिलें तो नज़रें चुराता
चेहरे पर लिखी हुई थी निराशा
मैंने पूछ लिया , क्यों किस बात का डर है?
इधर उधर घबरा कर देखा
और बोला अरे मेरा अस्तित्त्व किधर है?
मैं चौंकी , फिर हंसी
अरे स्वार्थ तुम्हारे अस्तित्व को क्या ख़तरा है
इस मनुष्य के मन मस्तिष्क में तो बस तू ही भरा है
स्वार्थ मंद मंद मुस्कुराया , मुझे देखा सर हिलाया
तुम्हे पता नहीं , प्रेम, कर्त्तव्य, स्नेह, मित्रता आदि के नीचे दबाकर
इस मनुष्य ने मेरा अंत किया है
और एक दो दिवस ही नहीं, जीवन पर्यन्त किया है
नहीं, नहीं, स्वार्थी नहीं हूँ, मैं प्रेम करता हूँ बस अपनों से
कर्तव्यों में बंधा हूँ स्वार्थी नहीं था मैं कर्मो से
मित्रता निभाई है स्वार्थ का कहाँ प्रश्न है?
स्नेहवश किया मैंने स्वार्थ नहीं अपनापन है
हर स्वार्थी बस ऐसे ही मेरा अस्तित्त्व नकार देता है
मुझे प्रेम , स्नेह, कर्तव्य आदि का आकार देता है
ठोक कर सीना नहीं कोई कहता है, हाँ स्वार्थी हूँ
जीवन में बार बार इसी स्वार्थ का लाभार्थी हूँ
और तो और ‘प्रभु भक्ति है ‘ कह कर भी मुझे मारा है
प्रभु को स्मरण किया स्वार्थ से और भक्ति है
कह कर विचारा है
सब करते हैं ‘स्वार्थ' सभी स्वार्थी हैं अपने स्वार्थ के लिए
और ‘अपने'भी तो लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए किये
फिर भी हर ओर प्रेम, स्नेह, कर्तव्य आदि का ही गुणगान हुआ
और मैं स्वार्थ तो बस अपने अस्तित्व पर ही हैरान हुआ
और मैं स्वार्थ तो बस अपने अस्तित्व पर ही हैरान हुआ।