दोपहर और मैं
एक और दोपहर है
और मैं फिर से अपनी बातों का
पिटारा लिए बैठी हूँ ,’बातें करने’
कितनी पींगे भरा करती थी ये दोपहर
नीम के पेड़ों से लटक के मेरे साथ।
चुपके चुपके से निकल जाया करते थे हम दोनों
बिना परवाह खेलते थे खुले मैंदानों में।
दोपहर और मैं नहीं डरते थे
माँ की डांट से।
याद है मुझे अमरुद का वो पेड़
जहां रोज मिलते थे मैं और दोपहर
‘लडकियां पेड़ पे नहीं चढ़ती’
ये वाली नसीहत दोपहर के साथ ही
बस भूल जाया करती थी मैं
और ‘मैं और दोपहर’ दोनों चढ़ते थे
अमरुद के पेड़ पर साथ-साथ
दोपहर के साथ पेड़ पर चढ़ने का
अलग ही धमाल होता था
ना सुबह के साथ , ना शाम के साथ
वैसा कमाल होता था
कितने ही कच्चे पक्के अमरूदों की दावत
करती थी मैं दोपहर साथ
और दोपहर मुझे और ऊंचा और ऊंचा
चढ़ने के लिए उकसाती थी
और मैं चढ़ जाया करती थी ऊंचा और ऊंचा
तब तक, जब तक की माँ की आवाज़
बरामदे से ना गूंजे।
‘अरे ये लड़की फिर चढ़ गयी भरी दोपहर में पेड़ पर’
और मैं बस धम्म से नीचे कूद पड़ती
मैं और दोपहर रोज हंसा करते थे साथ साथ
अपनी माँ पर
पर अब लगता है कि धीरे धीरे दोपहर भी
मेरी तरह कुछ कुछ बूढी हो चली है
खिड़की में आकर बाहर से ही मिल चली है
नहीं बुलाती है ये अब बाहर मुझको
थकी सी लगती है वो भी अब तो
पर आज बात बात में मैं उसको फिर उकसाऊँगी
आज उसे मैं बातें पुरानी याद दिलाऊंगी
फिर दोपहर संग अपना मेल ढूंढ ही लूंगी मैं
और दोपहर संग कोई खेल ढूंढ ही लूंगी मैं
अब अपने कमरे में ही उसे बिठा के खेलूंगी
अपनी कहानियों में उसे सजा के खेलूंगी
और चुपके चुपके फिर किसी दिन दोनों भाग जाएंगे
और अपनी से ना हम दोनों बाज आएंगे
नसीहत अब भी मिलेगी मुझे मालूम है
‘ माँ , आपकी उम्र वाले दोपहर में बाहर नहीं जाते’
उफ़ ये नसीहतों के पिटारे खाली हो क्यों नहीं जाते ?
फिर एक और दोपहर है
और मैं फिर से अपनी बातों का
पिटारा लिए बैठी हूँ ,’बातें करने’।