सिर्फ मैं और एक तुम
पृथ्वी: अनगिनत अरबों आकाशगंगाएँ
और सिर्फ मैं और एक तुम
अनगिनत अरबों गृह नक्षत्र
और सिर्फ मैं
और एक तुम
मनुष्य: एक मैं?
अरे अरबों खरबों हैं हम
पृथ्वी: मूर्ख क्या गिन रहे हो?
ये अरबों मानव?
ये सैकड़ों राष्ट्र?
या कि ये अंतर्राष्ट्रीय सीमाएँ?
नहीं, कदाचित तुम ‘रंगभेद’ मानते हो
और चमड़ी के रंग गिन रहे हो
या गांवों , नगरों , महानगरों की भीड़
और उनमे समाये मनुष्य?
क्या विचार रखते हो ?
आरबों, खरबों हैं हम
वाह क्या खयाल रखते हो
गिन सकते हो क्या तुम इस पानी को?
या कि बहती हुई इस हवा की रवानी को?
या गिन के बैठे हो सूरज से आते जीवन को?
या तोल रहे हो करोंरों वर्षों के इतिहास दर्पण को?
मूर्ख हो तभी तो ऐसा करते हो
आरबों मनुष्यों के भ्रम में रहते हो
एक मनुष्य, एक जीवन , एक ही पृथ्वी है
सिर्फ मैं हूँ, और एक तुम हो और सारी सृष्टी है ।