शब्द , जी उठे हैं
किताबों में लिखे शब्द , जी उठे हैं
ना जाने कितने गिलास पी उठे हैं
बहकी बहकी सी बातें करने लगे हैं
सपनों में भी मुलाकातें करने लगे है
कभी पकड़ लेते हैं गरेबान मेरा
पढ़ने लगे हैं ये चेहरा परेशान मेरा
कभी मुंह बना कर चिढ़ाते भी हैं
कभी आँखें दिखा कर डराते भी हैं
तो कभी भींच लेते हैं बाहों मे मुझको
खींच लेते हैं अनजानी राहों में मुझको
किताबों में उढ़ते हैं बादलों की तरह
बेवजह हँसते रोते हैं पागलों की तरह
इन शब्दों ने हौंसला भी दिया है मुझ को
सही कभी गलत फैसला भी दिया है मुझको
बहुत सैर कराई है परियों के नगर
हर मौसम में हैं रहे मेरे हमसफ़र
दिखते तो हैं मासूम से बिछे पन्नों में
पर किताबों में जान डाली हैं इन्होंने
आज फिर एक किताब उठाई है मैंने पढ़ने को
एक पहाड़ सामने है फिर मेरे चढ़ने को
फिर इन शब्दों की डोर को थाम लूँगी मैं
और एक हाथ में ख्वाहिशों का जाम लूँगी मैं
उड़ लूँगी मैं फिर मैं अनजान शहर की तरफ
एक नई दिशा, एक नए पहर की तरफ ।
क्यूंकी फिर से
किताबों में लिखे शब्द , जी उठे हैं
ना जाने कितने गिलास पी उठे हैं ।