सुनो धरती मैया
सुनो धरती मैया क्या तुम्हें कुछ कहना है?
या आज भी बस यूं ही चुप रहना है?
क्या कह रही हो तुम चुप कहाँ रहती हूँ मैं?
जब भी मौका मिले खुल के कहती हूँ मैं
देखा नहीं आँसू मेरे बाढ़ बन कर बहते है
मेरा स्वयं का ही कितना नुकसान करते हैं
ये सूरज भी तो अब बहुत जलाता है मुझे
जलवायु परिवर्तन हुआ कह के सताता है मुझे
जल भी मेरा, वायु भी मेरी, मनुष्य भी मेरा ही है
प्रकृति भी मेरी, ऋतुएँ भी मेरी, साँझ सवेरा भी है
मेरे क्रोध की सीमाएँ आंधीयों ,चक्रवातों से हैं
मेरी प्रीत की रेखाएँ फूलों की बारातों से हैं
इतना तो बोलती हूँ अपने को व्यक्त करती हूँ
क्रोध तो करती हूँ पर प्रेम अत्यंत करती हूँ
क्या कह रही हो तुम चुप कहाँ रहती हूँ मैं?
जब भी मौका मिले खुल के कहती हूँ मैं ।