सबको लुभाती
हिमशिलाओं के बीच से जन्म लेती थरथराती
बूंद बूंद में अपना अस्तित्व खोजती
थोड़ा सा चल पड़ती थोड़ा सा रुकती
पत्थरों से उलझ कर झगड़ती और मुड़ती
कन्दराओं में गुफाओं में भटकती पनपती
चाँद की चाँदनी से नहा कर दमकती
ढलानो पर गिरती पड़ती बरबस लुढ़कती
सूरज की रोशनी में तप कर थिरकती
मैदानों में अल्हड़ सी घूमती मचलती
ठहरती फिर चलती , और चल चल ठहरती
खेतों को गले से लगाकर निखरती
शहरों से गांवों से होकर गुजरती
बहती ही रहती ना रुकती ना थकती
कभी ये उफनती कभी ये सिमटती
सागर से मिलकर ये उसमे समाती
ऊंचाइयों से गहराइयों तक ये आती
ना होती व्यथित और ये ना होती विचलित
ये नदी अपने जीवन से सबको लुभाती।