दिया जलता रहे

माँ  के हाथों से मंदिर में जलता हुआ

नानी के हाथों से तुलसी की क्यारी में

जन जन के हाथों से गंगा में बहता हुआ

उठता सा , गिरता सा , झिलमिल कतारी में

 

धरती की मिट्टी से , नदिया के पानी से

हाथ में कुम्हार के ढलता आसानी से

आशा का जलता, ये श्रद्धा का जलता है  

प्रेम का भी लहराता अपनी मनमानी से

 

कतारों में जलता है , हीरे की माला सा

कभी दूर टिमटिम सा झोपड़ी में जलता है

हवाएँ चाहे लाख करें कोशिश बुझाने की

  दिया फिर भी यहाँ वहाँ जलता ही मिलता है

 

दिवाली में दिया जले खुशी के बहाने से

बनवास के बाद राम के घर लौट आने से

ये विजय का पर्व देश यूं ही मनाता रहे

जिसको जहां पसंद, वो दिया वहाँ जलाता रहे।

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