‘इतिहास’ ही हो ना ?
सर को हाथों में लिए क्यूँ बैठे हो?
यूं अंधेरा किए क्यूँ बैठे हो?
क्यूँ मिजाज तुम्हारा संजीदा सा है?
कोई सवाल घेरे क्या पेचीदा सा है?
क्यूँ गर्दन यूं शर्म से झुकी सी है?
क्यूँ सांसें तुम्हारी थकी सी हैं?
क्या दर्द है कोई तुम्हारे सीने में?
ये लहू सा क्यूँ हैं तुम्हारे पसीने में?
तुम तो जैसे मातम सा मनाए बैठे हो
अजीब डरावना मंजर सजाए बैठे हो
‘इतिहास ‘ ही हो ना कोई भूत तो नहीं?
कोई रोग, कोई श्राप, छुआ छूत तो नहीं?
ये तो मनुष्य है जो चुन चुन कर तुममे
केवल विषैले पन्नों को खोज लेता है
ये तो मनुष्य है जो गिन गिन कर तुम्हारी
शर्मिंदगियों की मौज लेता है
मैं ‘वर्तमान ‘ हूँ मेरी बात सुनो
बिना भेद भाव, बिना पक्षपात सुनो
तुम्हारे सुनहरे पन्नों की मुझे जरूरत है
उनमे ही छुपी भविष्य की सूरत है
उनमे ही लिखा है साहस, और सार्थकता
उनमे ही लिखा है कारुण्य और नैतिकता
उनसे ही मनुष्य ने सीखी हैं अखंडता
वहीं पर तो लिखी है सारी आविष्कर्ता
‘सत्य’ की राह भी तो तुम ही हो
बौद्धिक प्रवाह भी तो तुम ही हो
राजनीति हो या रणनीति सब तुमसे ही हैं
इस पृथ्वी की चक्रगति तुमसे ही है
‘इतिहास’ उठो यूं सर झुका के ना बैठो तुम
मेरे लिए अपने आप को समेटो तुम
तुमसे सीख कर ही मुझे आगे बढ़ना है
तुममे कई और सुनहरे पन्नों को मुझे जड़ना है
तुममे कई और सुनहरे पन्नों को मुझे जड़ना है।