बात करो, संवाद करो!
लोग बहुत से मिलते हैं
और हाल चाल भी पूछते हैं
क्यूँ कैसा रहा तुम्हारा रविवार , क्या किया ?
क्यूँ कैसी रहीं तुम्हारी छुट्टियाँ , क्या क्या लिया?
बच्चे कैसे हैं, नौकरी कैसी है ?
क्या खरीदा , क्या बेचा?
इस बार के त्योहार पर क्या कुछ नया सोचा?
एक संवाद की शुरुआत हो ही जाती है
कुछ इधर उधर की बात हो ही जाती है
पर नया जाने क्यूँ मुझे ऐसा लगता है
जैसे कि वो मेरा रविवार कैसा है जानने से अधिक
अपने रविवार के बारे में बताने के उत्सुक हैं ।
मेरे त्योहार के बारे में जानने से अधिक
अपने संसार को बताने के अधिक इच्छुक हैं ।
फिर भी ना जाने क्यूँ हर तरफ नसीहतें हैं
कि बात करो, संवाद करो
पर कैसा संवाद ? किससे संवाद ?
मधुर संवाद या बेबाक संवाद?
झूठ में लिपटा या सच्चा संवाद?
बहुत असमंजस में रहती हूँ मैं
जब भी सुनती हूँ
‘ मिलते रहिए, बातें करते रहिए ’
जैसी सलाह , यहाँ वहाँ हर जगह ।
पर संवाद करने वाले हमारे बीच में हैं कहाँ?
जब भी अपना मुंह खोलती हूँ
सोचती हूँ कि क्या वो बोलूँ जो लोग सुनना चाहते हैं?
या वो बोलूँ जो मैं कहना चाहती हूँ?
मैं तो बस हर अवसर हर संवाद में
बस अपनी धारणाओं में बहना चाहती हूँ
विद्रोही तक भी कहलाई जाने लगूँगी मैं
जब संवादों को सच का जामा पहनाने लगूँगी मैं
पागल है जो भी मन में आए बकती है
समय ,अवसर ,व्यक्ति भी नहीं तकती है
‘संवाद’ इस समाज में एक औपचारिकता है
ठहाकों , चुटकुलों , तस्वीरों में ढकी वास्तविकता है
कहाँ रह गयें हैं आज कल आपस में संवाद करने वाले?
सब बन गए हैं जी बहलाने वाले, या ‘पार्टी’ करने वाले
भावनाओं का आदान प्रदान संवाद होता है , तस्वीरों का आदान प्रदान नहीं
संवादों में समाधान और पीड़ा निदान होता है , अनर्गल प्रतिष्ठान नहीं
संवादों के सही मायने जिस दिन भी ये लोग समझ जाएंगे
संभवतः फिर ये ‘संवाद करो’ का आलाप नहीं गाएंगे
ठहाकों, चुटकुलों, पार्टियों, तस्वीरों में ही अपने ‘संवाद’ ढूंढ लेंगे वो
मुझसे पागलों को ‘संवाद करो’ वाली दुहाई फिर नहीं देंगे वो!