साड़ी का मोल

साड़ी और मैं भाई साड़ी ही क्यूँ ?

साड़ी ही मुझको इतनी प्यारी है क्यूँ?

आँख खुली तो खुद को पाया था माँ की साड़ी में

माँ के आँचल में माँ के प्यार की पिटारी में

फिर साड़ी का पल्लू पकड़ माँ के पीछे पीछे था चलना

और साड़ी का पल्लू पकड़ पैर पटक पटक मचलना

माँ की साड़ी के रंगों में खो कर रंगीन सपने बुनना

माँ की साड़ी के बूटों को नन्ही उंगलियों से चुनना

तारों पर सूखती साड़ियाँ जैसे प्यार में फहरती थीं

लाल , हरी , बसंती , सभी से माँ मेरी सँवरतीं थीं

साड़ी की हरेक पर्त में माँ का सपना सा बसता था

हर त्योहार शादी में वो सपना खूब हँसता था

साड़ी एक परिधान नहीं माँ का एक परिचय थी

ममता का चिन्ह और प्रेम का उत्सव सुखमय थी

साड़ी के मोल को मेरे नन्हे मन ने था यूं तोला

जब उम्र हुई तो साड़ी का मोल मुझसे कुछ और बोला

पता नहीं साड़ियाँ महंगी और सस्ती होती हैं ?

कीमती साड़ियों में सस्ती अपना मोल खोती हैं

टसर की है , कि मूंगा सिल्क कि बनारसी पहने हो तुम?

पार्टियों में, शादियों में मेरा व्यथित मन झेलता ये प्रश्न

बरबस हाथ ढूँढने लगते माँ की साड़ी का वो पल्लू

जिसे पकड़ मैं एक बार फिर अपने मन की बातें बोलूँ

नहीं पहननी है मुझे ये मूंगा , टसर , बनारसी साड़ी

माँ जहां हो तुम वहाँ से भेज दो अपनी सस्ती वाली

बस वही पहन तुम जैसी नारंगी, बसंती हो जाऊँ मैं

फिर कोई पूछे तो खुशी से अपनी साड़ी ‘अनमोल’ बताऊँ मैं !

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